dalit journalism
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आरंभिक भारतीय
₹350.00 Add to cartआरंभिक भारतीय
टोनी जोसेफ़
हम भारतीय कौन हैं?
हम कहाँ से आए थे?इन गहन सवालों के जवाबों को जानने के लिए पत्रकार टोनी जोसेफ़ 65,000 वर्ष अतीत में जाते हैं, जब आधुनिक मानवों या होमो सेपियन्स के एक समूह ने सबसे पहले अफ़्रीका से भारतीय उपमहाद्धीप तक का सफ़र तय किया था। हाल के डीएनए प्रमाणों का हवाला देते हुए वे भारत में आधुनिक मानवों के बड़े पैमाने पर हुए आगमन यानी ईरान से 7000 ईसा पूर्व और 3000 ईसा पूर्व के बीच कृषकों के आगमन तथा 2000 ईसा पूर्व और 1000 ईसा पूर्व के बीच मध्य एशियाई स्टेपी (घास के मैदान) से अन्य लोगों के साथ ही पशुपालकों के आगमन का भी पता लगाते हैं।
आनुवांशिक विज्ञान और अन्य अनुसंधानों के परिणामों का उपयोग करते हुए जोसेफ़ जब हमारे इतिहास की परतों का ख़ुलासा करते हैं, तब उनका सामना भारत के इतिहास के कुछ सबसे विवादास्पद और असहज सवालों से होता है :• हड़प्पा के लोग कौन थे?
• क्या आर्यों का भारत में वास्तव में आगमन हुआ था?
• क्या उत्तर भारतीय आनुवांशिक रूप से दक्षिण भारतीयों से भिन्न हैं?यह एक बेहद महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, जो प्रामाणिक और साहसी तरीक़े से आधुनिक भारत की वंशावली से जुड़ी चर्चाओं पर विराम लगाती है। यह पुस्तक न केवल हमें यह दिखाती है कि आधुनिक भारत की जनसंख्या के वर्तमान स्वरूप की रचना कैसे हुई, बल्कि इस बारे में भी निर्विवाद और महत्वपूर्ण सत्य का ख़ुलासा करती है कि हम कौन हैं।
हम सब बाहर से आकर बसे हैं
और हम सब मिश्रित जाति के हैंटोनी जोसेफ़
बिज़नेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक टोनी जोसेफ़ अनेक शीर्ष अख़बारों और पत्रिकाओं में कॉलम लिखते रहे हैं। उन्होंने हिंदुस्तान के प्रागितिहास पर भी अनेक प्रभावशाली लेख लिखे हैं।
AWARDS Received for this book:
- Best non-fiction books of the decade (2010-2019) – The Hindu.
- Book of the Year Award (non-fiction), Tata Literature Live, 2019 – The Wire.
- Shakti Bhatt First Book Prize 2019 – The Indian Express.
- Atta Galatta Award for best Non-Fiction, 2019 – Deccan Herald.
- One of the 10 Best New Prehistory Books To Read In 2020, as identified by Book Authority.
पृष्ठ 226 रु350
₹350.00 -
हिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श – डॉ. पी.एन. सिंह
₹475.00 Add to cartहिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श – डॉ. पी.एन. सिंह
हिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श
डॉ. पी.एन. सिंह
दलित रचनाकार और विमर्शकार चाहे जितना भी शहादती तेवर अपनाएँ, अपने पूर्व के कम्युनिस्टों की तुलना में इन्होंने सुरक्षित विकेट पर ही खेला है। अपराध-बोध से पीड़ित पारम्परिक चेतना सुरक्षात्मक रही है अथवा चुप। प्रगतिशील चेतना ने भी विरोध न कर दलित साहित्य संवेदना के कतिपय अतिरेकों के विरुद्ध मात्र सावधान किया है। इसकी आलोचना मित्रवत् रही है।
प्रथम आधुनिक दलित होने का गौरव पटना के दलित कवि ‘हीरा डोम’ को दिया जा सकता है जिनकी एक कविता ‘अछूत की शिकायत’, सरस्वती में 1914 में प्रकाशित हुई थी। इसमें दलित पीड़ा का मार्मिक अंकन है। 1914 में अपने जाति-नाम ‘डोम’ का उल्लेख उनके दलितवादी स्वर का भी परिचायक है।
…कुल मिलाकर, इसके राजनीतिक क्षितिज पर जो घटित हुआ है, लगभग वही इसके साहित्यिक फलक पर भी। अब दलित बुद्धिधर्मी पारम्परिक जातिबद्ध सोच से मुक्त किसी रैडिकल सामाजिक विवेक एवं नैतिकता के अग्रधावक नहीं लगते। इसी कारण ये अपने नव-अगड़ों की शिनाख़्त से बचते हैं। आरम्भिक सर्जनात्मक विस्फोट के बाद दलित कविता ने अपने लिए कोई नया पथ अन्वेषित करने की चिन्ता नहीं दिखाई।
पृष्ठ 190 रु475
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दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ – ओमप्रकाश वाल्मीकि
₹175.00 Add to cartदलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ – ओमप्रकाश वाल्मीकि
दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ
ओमप्रकाश वाल्मीकि
प्रस्तुत पुस्तक में दलित साहित्य की अन्त:चेतना को समझने की कोशिश की गई है जिसमें कवि-कहानीकार के रूप में दलित रचनाकार को अपनी रचना-प्रक्रिया के द्वारा दलित साहित्य की आन्तरिकता को तलाश करने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है।
दलित लेखक किसी समूह, मसलन—किसी जाति विशेष, सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ नहीं है, व्यवस्था के विरुद्ध है। दलितों की प्राथमिक आवश्यकता अपनी अस्मिता की तलाश है, जो हज़ारों साल के इतिहास में दबा दी गई है। दलित साहित्य में जो आक्रोश दिखाई देता है, वह ऊर्जा का काम कर रहा है जिसकी उपस्थिति को ग़ैर-दलित आलोचक नकारात्मकता की दृष्टि से देखते हैं, जबकि वह दलित साहित्य को गतिशीलता के साथ जीवन्त भी बनाता है। आज भी भारत में जाति-व्यवस्था का अमानवीय रूप अनेक प्रतिभाओं के विनाश का कारण बनता है। लेकिन भारतीय मनीषा की महानता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आज भी दलितों को पीने के पानी तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है, दलित आत्मकथाएँ इन सबको पूरी ईमानदारी से बेनक़ाब करती हैं। दलित कहानियाँ समाज में रचे-बसे जातिवाद की भयावह स्थितियों से संघर्ष करने के साथ-साथ समाज में घृणा की जगह प्रेम की पक्षधरता दिखाती हैं। भारतीय समाज-व्यवस्था की असमानता पर आधारित जीवन की विषमताओं, विसंगतियों के बीच से दलित कविता का जन्म हुआ है जो नकार, विद्रोह और संघर्ष की चेतना के साथ सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है, वह जीवन-मूल्यों की पक्षधर है। आलोचक उसके रूप और शिल्प-विधान को तलाश करते हुए उसकी आन्तरिक ऊर्जा को नहीं देखते हैं। दलित साहित्य-विमर्श में यदि यह पुस्तक कुछ जोड़ पाती है तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी।
—भूमिका से
पृष्ठ-160 रु175
₹175.00 -
हिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श – डॉ. पी.एन. सिंह
₹475.00 Add to cartहिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श – डॉ. पी.एन. सिंह
हिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श
डॉ. पी.एन. सिंह
दलित रचनाकार और विमर्शकार चाहे जितना भी शहादती तेवर अपनाएँ, अपने पूर्व के कम्युनिस्टों की तुलना में इन्होंने सुरक्षित विकेट पर ही खेला है। अपराध-बोध से पीड़ित पारम्परिक चेतना सुरक्षात्मक रही है अथवा चुप। प्रगतिशील चेतना ने भी विरोध न कर दलित साहित्य संवेदना के कतिपय अतिरेकों के विरुद्ध मात्र सावधान किया है। इसकी आलोचना मित्रवत् रही है।
प्रथम आधुनिक दलित होने का गौरव पटना के दलित कवि ‘हीरा डोम’ को दिया जा सकता है जिनकी एक कविता ‘अछूत की शिकायत’, सरस्वती में 1914 में प्रकाशित हुई थी। इसमें दलित पीड़ा का मार्मिक अंकन है। 1914 में अपने जाति-नाम ‘डोम’ का उल्लेख उनके दलितवादी स्वर का भी परिचायक है।
…कुल मिलाकर, इसके राजनीतिक क्षितिज पर जो घटित हुआ है, लगभग वही इसके साहित्यिक फलक पर भी। अब दलित बुद्धिधर्मी पारम्परिक जातिबद्ध सोच से मुक्त किसी रैडिकल सामाजिक विवेक एवं नैतिकता के अग्रधावक नहीं लगते। इसी कारण ये अपने नव-अगड़ों की शिनाख़्त से बचते हैं। आरम्भिक सर्जनात्मक विस्फोट के बाद दलित कविता ने अपने लिए कोई नया पथ अन्वेषित करने की चिन्ता नहीं दिखाई।
पृष्ठ-190 रु475
₹475.00 -
दलित यथार्थ और हिन्दी कविता – दीपक कुमार पाण्डेय
₹550.00 Add to cartदलित यथार्थ और हिन्दी कविता – दीपक कुमार पाण्डेय
दलित यथार्थ और हिन्दी कविता
दीपक कुमार पाण्डेय
पृष्ठ-199 रु550
₹550.00 -
नयी सदी की पहचान : श्रेष्ठ दलित कहानियाँ – मुद्राराक्षस
₹195.00 Add to cartनयी सदी की पहचान : श्रेष्ठ दलित कहानियाँ – मुद्राराक्षस
नयी सदी की पहचान : श्रेष्ठ दलित कहानियाँ
मुद्राराक्षस
हिन्दी क्षेत्र में दलित लेखन शुरू तो बहुत पहले हो गया था पर उसकी पहचान बनने में देर लगी। पहले हिन्दी में दलित लेखकों और चिन्तकों द्वारा दलित चेतना और संघर्ष को लेकर वैचारिक, ऐतिहासिक और सामाजिक लेखन हुआ। हिन्दी में दलित लेखन का यह एक महत्त्वपूर्ण दौर माना जाएगा। इसके बाद रचनात्मक लेखन का दौर शुरू हुआ। हिन्दी में दलित रचनात्मक लेखन का इतिहास ज़्यादा लम्बा नहीं है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दलित लेखक हिन्दी में सामने आए। हिन्दी रचनाजगत में दलित लेखकों की सक्रियता तीन क्षेत्रों में सामने आई। उन्होंने बड़े पैमाने पर रचनात्मक साहित्य लिखा। दलित लेखकों की कविताएँ और कथाकृतियाँ प्रकाशित हुईं। राजेन्द्र यादव लिखते हैं—दलित साहित्यकारों की यह मजबूरी है कि वे सिर्फ़ अपने निजी अनुभवों को ज़मीन पर जीने के संघर्षों और स्थितियों का इन्दराज करें। हाँ, सबसे निचली गहराइयों से उछल-उछलकर आनेवाली ये तस्वीरें इतनी ख़ौफ़नाक हैं कि सारे समाज को दहलाकर रख देती हैं।” दलित कथा रचनाओं को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। उनमें अपने समय और इतिहास का समाजशास्त्र भी है और स्थितियों से ऐसी मुठभेड़ भी जो व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के लिए प्रयत्नशील है। इन कथा रचनाओं में मात्र यथार्थ नहीं है। उनकी कृतियाँ यथार्थ की शल्यक्रिया भी करती हैं। लेकिन इस सामाजिक शल्यक्रिया के बावजूद दलित रचनाकार की समस्याएँ जीवन में ही नहीं साहित्य की दुनिया में पहले से ज़्यादा जटिल और लगभग हिंसक हो गई हैं।
पृष्ठ-160 रु195
₹195.00 -
मेरी विचार यात्रा (दलित-मुस्लिम : समान समस्याएं समान धरातल) – रामविलास पासवान
₹500.00 Add to cartमेरी विचार यात्रा (दलित-मुस्लिम : समान समस्याएं समान धरातल) – रामविलास पासवान
मेरी विचार यात्रा (दलित-मुस्लिम : समान समस्याएं समान धरातल)
रामविलास पासवान
यह रामविलास पासवान के वैचारिक लेखों की दूसरी पुस्तक है। इस पुस्तक में 63 लेख संकलित हैं, जिन्हें अपने आक्रामक तेवर के लिए भी जाना जाता है। ये लेख देश की ज्वलन्त समस्याओं पर रोशनी डालते हैं। ये आलेख यह भी बताते हैं कि सामाजिक न्याय ही देश की खुशहाली का एकमात्र विकल्प है। छह अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक का प्रथम अध्याय जहां दलित-मुस्लिम एकता से सम्बन्धित विषयों पर प्रकाश डालता है, वहीं दूसरा अध्याय बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कश्मीर आदि से सम्बन्धित समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। तीसरे अध्याय में रामविलास जी ने संवैधानिक मुद्दों को बेबाकी से रेखांकित किया है। इन लेखों को अपने सरोकारों और चिन्तनपरकता के कारण नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता, खासकर दलितों में क्रीमी लेयर: किस बात की बहस’ तथा ‘भारतीय न्यायिक सेवा का गठन जरूरी है। जैसे लेख ।अध्याय चार और पांच आतंकवाद और परमाणु नीति को लेकर हैं, जिनमें रामविलास जी ने प्रभावशाली ढंग से सटीक तर्कों के साथ अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। अन्तिम अध्याय विदेश नीति और अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों से जुड़ा है। इस अध्याय को पढ़कर रामविलास जी के व्यक्तित्व के एक नये पहलू का पता चलता है। विश्व की घटनाओं पर उनकी पैनी नजर हमेशा रही है। गोर्बाचोव के बाद रूस, भारत-पाक वार्ता, अफगानिस्तान, इराक, अमेरिका और उसके नये राष्ट्रपति बराक ओबामा, नेपाल तथा सद्दाम से जुड़े लेख उनके से राजनीतिक व्यक्तित्व को कई नए आयाम देते हैं।
पृष्ठ 279 रु500
₹500.00 -
केवल दलितों के मसीहा नहीं हैं अम्बेडकर – सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु
₹300.00 Add to cartकेवल दलितों के मसीहा नहीं हैं अम्बेडकर – सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु
केवल दलितों के मसीहा नहीं हैं अम्बेडकर
सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने सदियों से सभी तरह के अधिकार एवं सुविधा से वंचित जनसमूहों में यदि चेतना का संचार किया और उन्हें शिक्षित, संगठित होकर संघर्ष करने का मार्ग बताया तो यह उनका दलित-प्रेम नहीं; बल्कि सभी मूल, कुल, वंश, जाति, गोत्र, नस्ल, सम्प्रदाय, वर्ग, वर्ण के अधिकार-वंचितों की सच्ची सेवा का दुर्लभ उदाहरण है। सुविधा तथा अधिकार-वंचित मात्र दलित ही नहीं हैं, वे भी हैं जिनकी उन्नति तथा समृद्धि के सभी मुहानों को उद्धारक कहलानेवाले मायावी मानवों ने अवरुद्ध कर रखा है।
इस पुस्तक का प्रणयन डॉ. अम्बेडकर के इन्हीं अवदानों को रेखांकित करने के लिए किया गया है। श्रम-समस्या, नारी-उत्थान, धर्म, सामाजिक न्याय, उद्योग, कृषि, मानव-संसाधन, जल-संसाधन, बीमा उद्योग, मद्यनिषेध, शिक्षा, लोकतंत्र, कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, संघीय शासन प्रणाली, भाषायी प्रान्त और राष्ट्रभाषा आदि विषयों पर
डॉ. अम्बेडकर के चिन्तन तथा सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक हैं। पुस्तक में इन विषयों के सन्दर्भ में उनके विचारों पर सविस्तार विचार किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि बाबा साहब के विचार समष्टिभावी हैं, व्यष्टिभावी नहीं।पृष्ठ-208 रु300
₹300.00 -
दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ – ओमप्रकाश वाल्मीकि
₹175.00 Add to cartदलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ – ओमप्रकाश वाल्मीकि
दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ
ओमप्रकाश वाल्मीकि
प्रस्तुत पुस्तक में दलित साहित्य की अन्त:चेतना को समझने की कोशिश की गई है जिसमें कवि-कहानीकार के रूप में दलित रचनाकार को अपनी रचना-प्रक्रिया के द्वारा दलित साहित्य की आन्तरिकता को तलाश करने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है।
दलित लेखक किसी समूह, मसलन—किसी जाति विशेष, सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ नहीं है, व्यवस्था के विरुद्ध है। दलितों की प्राथमिक आवश्यकता अपनी अस्मिता की तलाश है, जो हज़ारों साल के इतिहास में दबा दी गई है। दलित साहित्य में जो आक्रोश दिखाई देता है, वह ऊर्जा का काम कर रहा है जिसकी उपस्थिति को ग़ैर-दलित आलोचक नकारात्मकता की दृष्टि से देखते हैं, जबकि वह दलित साहित्य को गतिशीलता के साथ जीवन्त भी बनाता है। आज भी भारत में जाति-व्यवस्था का अमानवीय रूप अनेक प्रतिभाओं के विनाश का कारण बनता है। लेकिन भारतीय मनीषा की महानता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आज भी दलितों को पीने के पानी तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है, दलित आत्मकथाएँ इन सबको पूरी ईमानदारी से बेनक़ाब करती हैं। दलित कहानियाँ समाज में रचे-बसे जातिवाद की भयावह स्थितियों से संघर्ष करने के साथ-साथ समाज में घृणा की जगह प्रेम की पक्षधरता दिखाती हैं। भारतीय समाज-व्यवस्था की असमानता पर आधारित जीवन की विषमताओं, विसंगतियों के बीच से दलित कविता का जन्म हुआ है जो नकार, विद्रोह और संघर्ष की चेतना के साथ सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है, वह जीवन-मूल्यों की पक्षधर है। आलोचक उसके रूप और शिल्प-विधान को तलाश करते हुए उसकी आन्तरिक ऊर्जा को नहीं देखते हैं। दलित साहित्य-विमर्श में यदि यह पुस्तक कुछ जोड़ पाती है तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी।
—भूमिका से
पृष्ठ 160 रु175
₹175.00 -
दलित वीरांगनाएँ एवं मुक्ति की चाह – बद्री नारायण
₹199.00 Add to cartदलित वीरांगनाएँ एवं मुक्ति की चाह – बद्री नारायण
दलित वीरांगनाएँ एवं मुक्ति की चाह
बद्री नारायण
भारत में सांस्कृतिक अभ्युदय की गवेषणा करनेवाली यह पुस्तक उत्तर भारत में दलित-राजनीति के प्रस्फुटन का अवलोकन करती है और बताती है कि 1857 की विद्रोही दलित वीरांगनाएँ, उत्तर प्रदेश में दलित-स्वाभिमान की प्रतीक कैसे बनीं और उनका उपयोग बहुजन समाजवादी पार्टी की नेत्री मायावती की छवि निखारने के लिए कैसे किया गया। यह पुस्तक रेखांकित करती है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में दलितों की भूमिका से सम्बन्धित मिथकों और स्मृतियों का उपयोग इधर राजनीतिक गोलबन्दी के लिए किस तरह किया जा रहा है। इसमें वे कहानियाँ भी निहित हैं जो दलितों के बीच तृणमूल स्तर पर राजनीतिक जागरूकता फैलाने के लिए कही जा रही हैं।
व्यपार-शोध और अन्वेषण पर आधारित इस पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख है कि किस तरह लोगों के बीच प्रचलित क़िस्सों को अपने मनमुताबिक़ मौखिक रूप से या पम्फ़लेट के रूप में फिर से रखा जा रहा है और किस प्रकार अपने राजनीतिक हित-साधन के लिए प्रत्येक जाति के देवताओं, वीरों एवं अन्य सांस्कृतिक उपादानों को दिखाकर प्रतिमाओं, कैलेंडरों, पोस्टरों और स्मारकों के रूप में तब्दील कर दिया गया है। इस पुस्तक में यह भी दर्शाया गया है कि कैसे बी.एस.पी. अपना जनाधार बढ़ाने के लिए ऐतिहासिक सामग्रियों का निर्माण एवं पुनर्निर्माण करती है। यह पुस्तक ज़मीनी सच्चाइयों एवं परोक्ष जानकारियों पर आधारित है, जिसमें लेखक राजनीतिक गोलबन्दी के लिए ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का विरोध करता है।
पृष्ठ-188 रु200
₹199.00 -
दलित विमर्श और हिन्दी साहित्य – दीपक कुमार पाण्डेय
₹175.00 Add to cartदलित विमर्श और हिन्दी साहित्य – दीपक कुमार पाण्डेय
दलित विमर्श और हिन्दी साहित्य
दीपक कुमार पाण्डेय
हिन्दी में दलित रचनाकारों की रचनाएँ लगभग तभी से मिलती हैं, जब से हिन्दी साहित्य का आरम्भ होता है।
सिद्धों-नाथों की बानियों से लेकर सन्त साहित्य तक दलित रचनाकारों द्वारा रचित विपुल साहित्य हिन्दी की अमूल्य सम्पदा है।
आधुनिक युग में समता, न्याय और सामाजिक सम्मान के लिए अम्बेडकरवादी वैचारिक प्रेरणा से लिखे गए सामाजिक बदलाव के साहित्य को ‘दलित साहित्य’ की संज्ञा प्राप्त हुई। सचेत अम्बेडकरवादी प्रेरणा का साहित्य हिन्दी से पहले ही मराठी आदि अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया। पिछली सदी में 1980 के दशक से हिन्दी का दलित लेखन परिमाण और गुणवता, दोनों ही स्तरों पर अपनी सुस्पष्ट स्वतंत्र पहचान बनाता है।
दलित साहित्य अखिल भारतीय परिघटना है। हिन्दी में पिछले चार दशक से सक्रिय दलित रचनाकारों की अनेक पीढ़ियों के प्रतिनिधि स्वरों से रचा गया यह संकलन वक़्त की माँग है।
पृष्ठ 196 रु175
₹175.00 -
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र -ओमप्रकाश वाल्मीकि
₹395.00 Add to cartदलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र -ओमप्रकाश वाल्मीकि
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र
ओमप्रकाश वाल्मीकि
वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय बन्धनों ने शताब्दियों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख़्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है। ऐसे सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण किया गया जो अपनी सोच और स्थापनाओं में दलित विरोधी है और समाज के अनिवार्य अन्तर्सम्बन्धों को खंडित करने वाला भी। जनवादी, प्रगतिशील और जनतांत्रिक साहित्य द्वारा भारत में जन्मना जाति के सन्दर्भ में केवल वर्ग की ही बातें करने से उपजी एकांगी दृष्टि के विपरीत दलित साहित्य सामाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है—ऐसी समानता जिसके बग़ैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता। दलित चिन्तन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारम्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है और झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध। अपने पूर्व साहित्यकारों के प्रति आस्थावान रहकर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिससे जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है।
यह पुस्तक दलित साहित्यान्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरा करती हुई दलित-रचनात्मकता की कुछ मूलभूत आस्थाओं और प्रस्थान बिन्दुओं की खोज भी करती है, और साहित्य के स्थापित तथा वर्चस्वशाली गढ़ों को उन आस्थाओं के बल पर चुनौती भी देती है।
पृष्ठ 120 रु395
₹395.00 -
भारतीय दलित आन्दोलन का इतिहास : खंड 1-4 – मोहनदास नैमिशराय
₹1,600.00 Add to cartभारतीय दलित आन्दोलन का इतिहास : खंड 1-4 – मोहनदास नैमिशराय
भारतीय दलित आन्दोलन का इतिहास : खंड 1-4
मोहनदास नैमिशराय
अतीत कभी सम्पूर्ण रूप से व्यतीत नहीं होता। बहुआयामी समय के साथ वह भिन्न–भिन्न रूपों में प्रकट होता रहता है। इतिहास अतीत का उत्खनन करते हुए उसमें व्याप्त सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, अन्तर्विरोध, अन्त:संघर्ष, विचार एवं विमर्श आदि के सूत्रों को व्यापक सामाजिक हित में उद्घाटित करता है। कारण अनेक हैं किन्तु इस यथार्थ को स्वीकारना होगा कि भारतीय समाज का इतिहास लिखते समय ‘दलित समाज’ के साथ सम्यक् न्याय नहीं किया गया। भारतीय समाज की संरचना, सुव्यवस्था, सुरक्षा व समृद्धि में ‘दलित समाज’ का महत्त्वपूर्ण योगदान होते हुए भी उसकी ‘योजनापूर्ण उपेक्षा’ की गई। ‘भारतीय दलित आन्दोलन’ का इतिहास (चार खंड) इस उपेक्षा का रचनात्मक प्रतिकार एवं वृहत्तर भारतीय इतिहास में दलित समाज की भूमिका रेखांकित करने का ऐतिहासिक उपक्रम है।
सुप्रसिद्ध दलित रचनाकार, सम्पादक एवं मनीषी मोहनदास नैमिशराय ने प्राय: दो दशकों के अथक अनुसन्धान के उपरान्त इस ग्रन्थ की रचना की है। दलित समाज, दलित अस्मिता–विमर्श तथा दलित आन्दोलन का प्रामाणिक दस्तावेज़ीकरण एवं तार्किक विश्लेषण करता यह ग्रन्थ एक विरल उपलब्धि है। आधुनिक भारतीय समाज की समतामूलक संकल्पना को पुष्ट और प्रशस्त करते हुए मोहनदास नैमिशराय स्वतंत्रता, समता, न्याय और बन्धुत्व जैसे शब्दों का यथार्थवादी परीक्षण भी करते हैं।
वस्तुत: भारतीय दलित आन्दोलन का इतिहास हज़ारों वर्ष पुराने भारतीय समाज की सशक्त सभ्यता–समीक्षा है। ग्रन्थ का प्रथम भाग ‘पूर्व आम्बेडकर भारत’ में निहित सामाजिक सच्चाइयों को उद्घाटित करता है। मध्यकालीन सन्तों के सुधारवादी आन्दोलन से प्रारम्भ कर दलित देवदासी प्रश्न, भंगी समाज, जाटव, महार, दुसाध, कोली, चांडाल और धानुक आदि जातियों के उल्लेखनीय इतिहास; ईसाइयत और इस्लाम से दलित के रिश्ते; आम्बेडकर से पहले बौद्ध धर्म एवं दक्षिण भारत में जातीय संरचना आदि का प्रामाणिक विवरण–विश्लेषण है। दलित आन्दोलन में अग्रणी व्यक्तित्वों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व संस्थाओं का वर्णन है। पंजाब और उत्तराखंड में दलित आन्दोलन की प्रक्रिया और उसके परिणाम रेखांकित हैं।
पाठकों, लेखकों, अनुसन्धानकर्ताओं, मीडियाकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं सजग नागरिकों के लिए पठनीय–संग्रहणीय। गाँव से लेकर महानगर तक प्रत्येक पुस्तकालय की अनिवार्य आवश्यकता।
पृष्ठ 2209 रु1600
₹1,600.00 -
हिंदी दलित साहित्य संचयिता – प्रीति सागर
₹850.00 Add to cartहिंदी दलित साहित्य संचयिता – प्रीति सागर
हिंदी दलित साहित्य संचयिता
प्रीति सागर
सवर्णवाद के सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती देनेवाले दलित साहित्य का आधार आधुनिक संवैधानिक मूल्य, मानव की सार्वभौमिक समानता और प्रजातंत्र में विश्वास है, और प्रेरणा का स्रोत उस अनन्त पीड़ा में है जो इस देश की दलित जातियों ने सदियों-सदियों अकारण और बिना कोई प्रतिरोध किए सही है। सन् 1914 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ से आरम्भ मानी जानेवाली दलित साहित्य की यात्रा अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के सामाजिक-राजनीतिक अदालतों और आज़ादी के बाद संविधान से मिले नए स्पेस से होती हुई आज एक स्थापित धारा का रूप ले चुकी है। मात्र प्रतिरोध और आक्रोश की कलाहीन अभिव्यक्ति के आरोपों को झुठलाते हुए अपनी रचनात्मकता को उसने एक भिन्न सौन्दर्यशास्त्रीय ज़मीन भी दी है।
प्रस्तुत संचयिता पिछली पूरी शताब्दी की दलित मनीषा के प्रमुख पड़ावों को संकलित करने का हिन्दी में सम्भवतः पहला सर्वांगीण प्रयास है। विद्रोह की तीव्र आकांक्षा को बेलाग स्वर में वाणी देनेवाली कविता, दलित जन के संघर्ष को गहराई से रेखांकित करनेवाली कहानी, दलित जीवन के अन्तर्बाह्य रेशों की व्याख्या करनेवाले उपन्यासों की स्वानुभूत पीड़ा की प्रामाणिक अभिव्यक्ति, आत्मकथा और अपनी पहचान के लिए लड़ रही रचना को ठोस वैचारिक आधार प्रदान करनेवाली आलोचना, सभी विधाओं का सम्यक् प्रतिनिधित्व इसमें हुआ है। उद्देश्य यही है कि दलित साहित्य के पाठकों, अध्येताओं और छात्रों को पीड़ा और प्रतिकार से उपजी सन्दर्भमूलक रचनाएँ एक जिल्द में उपलब्ध हो सकें; और दलित साहित्य का मूल स्वर कुछ प्रमुख रचनाओं के माध्यम से सामने लाया जाए।
संचयिता में उनतीस कवियों की कविताएँ, तेरह कहानियाँ, सात महत्त्वपूर्ण उपन्यास-अंश, छह आत्मकथा-अंश और आठ आलोचनात्मक आलेख शामिल हैं।
पृष्ठ 424 रु850
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இந்துவாக நான் இருக்கமுடியாது
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.பன்வர் மெக்வன்ஷி‘ஆர்எஸ்எஸ் – ஸில் கடமை உணர்ச்சியுடன் பல ஆண்டுகள் பணியாற்றிய பிறகு ஒரு தலித்தின் மயக்கம்நீங்கிய, கொடுமைநிறைந்த, வலிமிகுந்த, நேர்மையான நினைவலைகள்’ – சசி தரூர்
‘இது போன்ற ஒரு வரலாற்று நினைவுக்குறிப்புகள் அற்புதம் என்பதைவிடக் குறைவானதல்ல’ – பெருமாள் முருகன்
‘இந்தியாவின் ஆன்மாவில் சர்வாதிகார, பாசிச போக்குகள் படிந்திருக்கும் இந்த நாட்களில் ‘இந்துவாக நான் இருக்கமுடியாது’ நூலைப் படிக்கவேண்டியது அவசியமாகும். இது உங்கள் கண்களைத் திறக்கும். உங்கள் சிந்தனைகளை விடுவிக்கும். மேலும் உண்மையான சுதந்திரம் எது என உங்களை உணரவைக்கும்’ – பென்யாமின்
‘நான் ஒரு லாரி ஓட்டுநர். இந்தப்புத்தகம் நான் செல்லும் எல்லா இடங்களுக்கும் என்னோடு பயணம் செய்கிறது. இதைப்பற்றி மற்றவர்களிடம் நான் கூறுகிறேன்’ – பாலுலால் கண்டேலா
‘ஆர்எஸ்எஸ்ஸின் வஞ்சக வலையிலிருந்து எப்படித் தப்பிப்பது என்பதற்கான ஒரு கையேடு. ஒவ்வொரு சமூகச்செயல்பாட்டாளரும் இதைக் கட்டாயம் படிக்கவேண்டும்’ – டாக்டர் தாராராம் கௌதம்
‘சங் பரிவாரத்தின் ஒவ்வொரு உறுப்பினருக்கும் இதை நான் பரிந்துரைக்கிறேன்’ – அவினாஷ் விகாஸ் சர்மாHINDUVAKA NAN IRUKKA MUDIYATHU
தமிழில் : செ நடேசன்Banvar Mehvanshiபக்கங்கள் 304 ரூ299₹299.00 -
Cow, Beef And Indian Politics
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Ram Puniyani
Today dalits and other sections of society are suffering material deprivation and access to their rights. The identity based issues are being floated to undermine the needs of larger sections of society. Deliberate or not, the issues related to identity, Ram Temple or Holy Cow are a powerful tool for political mobilization for the RSS agenda of Hindu Nation to dislodge the secular democratic values which need to be strengthened for betterment of Indian society.
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Caste & Communalism
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By Ram Puniyani
Puniyani had been teaching at IIT Mumbai till 2004. He took voluntary retirement to associate with various secular initiatives and has been part of numerous investigation reports on violation of human rights of minorities. He is conducting workshops in different parts of the country regarding it. This book is aimed mainly at taking the stock of the situation of dalits today. The idea is to raise the debate about all pervasive caste system and the need to annihilate it through mass struggle.
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